सखिया, वा घर सबसे न्यारा: कुमार गन्धर्व का अमर निर्गुण गायन
इस अनुपम रचना में कबीर जी ने अपनी समाधि की स्थिति का सुंदर वर्णन किया है। यथारूपमें आप के समक्ष प्रस्तुत है।
कुमार गन्धर्व जी के निर्गुणी गायन के क्या कहने
अति आनंदमय !!
जय हो
सखिया, वा घर सबसे न्यारा,
जहां पूरन पुरुष हमारा |
(मित्र, वह ही घर सब से अच्छा है जहाँ हमारे ईश्वर का निवास है)
जहां नहीं सुख दुख, साच झूट नहीं,
पाप न पुन्य पसारा |
नहीं दिन रैन, चांद नहीं सूरज,
बिन ज्योति उजियारा....सखिया |
( ईश्वर के घर में न सुख है, न दुःख; न सच न झूठ; न पाप न पुण्य; न दिन न रात; न चाँद न सूर्य; [ ईश्वर का घर माया के हर विकार से ऊपर है] वहां पर हमेशा बिना किसी ज्योति के उजाला है)
नहीं तह ज्ञान ध्यान, नहीं जप तप,
वेद कित्तेब न बानी |
करनी धरनी रहनी गहनी,
ये सब जहां हिरानी....सखिया |
( वहां लौकिक ज्ञान, ध्यान, जप, तप, वेद, ग्रन्थ इत्यादि की आवशयकता नहीं. न ही कर्म करने व रहने इत्यादि की चिंता होती है. बड़े अचम्भे का घर है ईश्वर का)
धर नहीं अधर, न बाहर भीतर,
पिंड ब्रम्हंड कछु नाही |
पांच तत्व गुन तीन नहीं तह,
साखी शब्द न ताहीं....सखिया |
(वहां न किसी का अधर है, न वो निराधार है; उस घर की कोई अंदर या बाहर की सीमा नहीं; कोई पिंड या ब्रह्माण्ड भी नहीं; पांच तत्व अर्थात जल, वायु, अग्नि, आकाश तथा पृथ्वी, कुछ भी नहीं. मित्र उस घर की महिमा बताने के लिये उचित शब्द ही नहीं बने...वाह)
मूल न फूल, बेली नहीं बीजा,
बिना ब्रच्छ फल सोहे |
ओहम् सोहम् अर्ध उर्ध नहीं,
स्वास लेख न कौ है....सखिया |
(ईश्वर के घर में फूल, बेल, कन्द, बीज इत्यादि नहीं, वहां वृक्ष के बिना ही फल मिलते हैं. वहां ब्रह्मनाद नहीं, श्वास प्रक्रिया नहीं... यह सब जगत कि वस्तुएं हैं)
जहां पुरुष तहवा कछु नाहीं,
कहे कबीर हम जाना |
हमरे संग लाखे जो कोई,
पावे पाद निर्वाना...सखिया |
(कबीर कहते हैं, मित्र, जहाँ पूर्ण पुरुष ईश्वर है वहां जगत कि वस्तुओं का क्या काम. जिसने मेरी दृष्टि से ईश्वर को देख लिया समझो उसने निर्वाण पद पा लिया)